Navratri Kanya Pujan | Navratri में अष्टमी और नवमी पर क्यों किया जाता है कन्या पूजन, क्या है इसका महत्व, क्या है Kanya Pujan की विधि | Maha Ashtami

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नवरात्र में कन्या पूजन का महत्व एवं विधि

नवरात्र पूजन से जुड़ी कई परंपराएं हैं। जैसे कन्या पूजन। इसका धार्मिक कारण यह है कि कुंवारी कन्याएं देवीमाता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती हैं। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती हैं। यही कारण है कि इसी उम्र की कन्याओं का विधिवत पूजन कर भोजन कराया जाता है। मान्यता है कि होम, जप और दान से देवी इतनी प्रसन्न नहीं होतीं, जितनी कन्या पूजन से होती है। ऐसा कहा जाता है कि विधिवत, सम्मानपूर्वक कन्या पूजन से व्यक्ति के हृदय से भय दूर हो जाता है। साथ ही उसके मार्ग में आने वाली सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। उस पर मां की कृपा से कोई संकट नहीं आता। मां दुर्गा उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं। आरोग्य, भौतिक सम्पदा, ऐश्वर्य, ज्ञान (विद्या), गुणवान जीवनसाथी, संतान, सौभाग्य, दीर्घायु, मनोकामनापूर्ति ये सभी के सभी प्राप्त होते है।

नवरात्रि में नौ कन्या का महत्व-
जिस प्रकार किसी भी देवता के मूर्ति की पूजा करके हम सम्बंधित देवता की कृपा प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार मनुष्य प्रकृति रूपी कन्याओं का पूजन करके साक्षात माँ आदिशक्ति भगवती की कृपा पा सकते हैं। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है कि "कुमारीं पूजयित्या तू ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्" अर्थात दुर्गापूजन से पहले कुवांरी कन्या का पूजन करने के पश्चात ही आदिशक्ति मां दुर्गा का पूजन करें।

नवरात्रि/विजयादशमी के दिन माँ आदिशक्ति दुर्गा की पूजा करने से पहले कन्या-पूजन करने को महत्व दिया जाना इस बात के मर्म को समझने की आवश्यकता है, इसमें छिपे सन्देश को समझने की आवश्यकता है की "नारी अबला नहीं बल्कि शक्ति का स्वरुप है"। यही है नवरात्रि का सन्देश। केवल माँ दुर्गा की पूजा करने से नहीं अपितु कन्याओं का, महिलाओं का आदर-सम्मान करने से ही माँ आदिशक्ति की कृपा प्राप्त होती है। यही वास्तविक दुर्गा पूजा है, इसके बिना साक्षात माँ दुर्गा की पूजा भी अधूरी है, अपूर्ण है। 

कन्याओं का पूजन करते समय पहले उनके पैर धुलें, पुनः पंचोपचार विधि से पूजन करें और बाद में सुमधुर भोजन कराएं और प्रदक्षिणा करते हुए यथा शक्ति वस्त्र, फल और दक्षिणा देकर विदा करें। इस तरह नवरात्रि पर्व पर कन्या का पूजन करके भक्त महालक्ष्मी-महासरस्वती-महाकाली स्वरूपा महेशप्रिया आदिशक्ति माता पार्वती की कृपा पा सकते हैं जिसके फलस्वरूप भक्तों-साधकों की हर शुभ मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। 

नवरात्र में कन्या पूजन के लिए जिन कन्याओं का चयन करें, उनकी आयु दो वर्ष से कम न हो और दस वर्ष से ज्यादा भी न हो। एक वर्ष या उससे छोटी कन्याओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। एक वर्ष से छोटी कन्याओं का पूजन, इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह प्रसाद नहीं खा सकतीं और उन्हें प्रसाद आदि के स्वाद का ज्ञान नहीं होता। इसलिए शास्‍त्रों में दो से दस वर्ष की आयु की कन्याओं का पूजन करना ही श्रेष्ठ माना गया है।

आयु अनुसार कन्या रूप -
नवरात्र में सभी तिथियों को एक-एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा होती है।
- दो वर्ष की कन्या (कुमारी) के पूजन से माँ दुख और दरिद्रता दूर करती हैं।
- तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति रूप में मानी जाती है। त्रिमूर्ति कन्या के पूजन से धन-धान्‍य आता है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
- चार वर्ष की कन्या को कल्याणी माना जाता है। इसकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है।
- पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कहलाती है। रोहिणी को पूजने से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है।
- छह वर्ष की कन्या को कालिका रूप कहा गया है। कालिका रूप से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।
- सात वर्ष की कन्या का रूप चंडिका का है। चंडिका रूप का पूजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
- आठ वर्ष की कन्या शाम्‍भवी कहलाती है। इसका पूजन करने से वाद-विवाद में विजय प्राप्त होती है।
- नौ वर्ष की कन्या दुर्गा कहलाती है। इसका पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है तथा असाध्य कार्यपूर्ण होते हैं।
- दस वर्ष की कन्या चामुण्डा कहलाती है। चामुण्डा अपने भक्तों के सारे मनोरथ पूर्ण करती है।

नवरात्र के दसों दिन कुवारी कन्या भोजन कराने का विधान है परंतु अष्टमी तथा नवमी के दिन का विशेष महत्व है। अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार अष्टमी या नवमी को, या दोनों ही दिन कन्या पूजन किया जाता है। अतः श्रद्धापूर्वक कन्या पूजन करना चाहिये। कन्याओं की संख्या 9 हो तो अति उत्तम है नहीं तो दो कन्याओं से भी काम चल सकता है। सर्वप्रथम माँ दुर्गा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पाँव धोएं। हल्दी, कुमकुम, अक्षदा, पुष्प चढ़ाये। इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर कुमकुम / बिंदी लगाएं। आरती उतारें। प्रसादी का भोग लगाएं। एक थाली में दो पूरी उसपर चने और सूजी हलवा / लापशी रखे हुए नौ (9) नैवेद्य रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं। कन्याओं को भोग बताएं (कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को परोसी जानेवाली थाली में से यही प्रसाद खाने को दें)। इस प्रसाद के साथ खीर, अरहर (तुवर) की दाल - चावल या खिचडी, पूरनपोली का विशेष महत्व है। अन्य मीठे व्यंजन भी बनाए जा सकते हैं। कन्याओं के भोजन के पश्चात कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें। कन्या पूजन में भेट-उपहार में देने हेतु कई वस्तुएँ प्रचलित हैं मगर पूजन में वही वस्तुएँ देनी चाहिए जिसे पाकर कन्या प्रसन्न हो। " जय माता दी " कहकर उनके चरण छुएं। कन्याओं को घर से विदा करते समय उनसे आशीर्वाद के रूप में पीठ पर थपकी लेने की भी मान्यता है। कन्याओं के साथ एक लांगूर यानी लड़के को भी भोजन कराते है (जिमाते है)। ऐसा कहा जाता है कि लांगूर के बिना कन्या-भोजन अधूरा रहता है। कन्याओं के प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास (पूजा में) रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।

नौ दिन प्रतिदिन देवीको नैवेद्य चढाना -

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नवरात्रिमें देवीके नैवेद्यके लिए सदाकी भांति ही सात्विक पदार्थोंका भोजन बनाएं। नित्यके व्यंजनोंके अतिरिक्त विशेषतः चना और हलवा का समावेश जरूर करें। यद्यपि भक्त को उपवास हो तो भी देवी को प्रतिदिन नैवेद्य का भोग लगाना चाहिए। चना और अरहर की दाल इन दो व्यंजनोंकी सहायतासे, चढाए गए नैवेद्य के कारण, उससे प्रक्षेपित कार्यरत रजोगुणके वेगकी ओर ब्रह्मांडकी शक्तिरूपी तेज-तरंगें अल्पावधिमें आकृष्ट होती हैं। इसलिए उस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेवालेको उसमें विद्यमान शक्तिरूपी तेज-तरंगोंका लाभ मिलता है और उसकी स्थूल एवं सूक्ष्म देहोंकी शुद्धि होती है।’

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नवरात्रिमें प्रत्येक दिन उपासक विविध व्यंजन बनाकर देवीमां को नैवेद्य अर्पित करते हैं। माहेश्वरी समाज में प्रसाद / नैवेद्य के रूपमें चने, खीर-पूरी, अरहर (तुवर) की दाल - चावल या खिचडी का एवं पूरनपोली और लापशी-चावल का विशेष महत्व है। चनेकी दाल पकाकर, रगडकर, गुड मिलाकर बनाया गया एक पदार्थ, इसे ‘पूरण’ कहते हैं। इस पूरण को भरकर ‘पुरणपोळी’ अर्थात पूरणकी मीठी रोटी विशेष रूपसे बनाई जाती है। चावलके साथ खानेके लिए अरहर अर्थात तुवरकी दाल भी बनाते हैं। बंगाल प्रांतमें प्रसाद के रूपमें चावल एवं मूंगदाल की खिचडीका विशेष महत्व है। रसगुल्ला आदि मीठे व्यंजन भी बनाए जाते हैं। महाराष्ट्र में पूरनपोली के नैवेद्य का विशेष महत्व है। गुजरात में चने और खिचड़ी के नैवेद्य का भोग लगाते है।

नवरात्र की अष्टमी - नवमी है विवाहितों के लिए विशेष -

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नवरात्र पर्व में अष्टमी या नवमी के दिन (अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार) विवाहित महिलाएं और पुरुष अपने जीवनसाथी के स्वास्थ्य-यश-सुख-समृद्धि के लिए देवी मां को 'चुनरी' भेंट करते हैं। घर में स्थापित माता की मूर्ति या फोटो पर पति-पत्नी मिलकर श्रद्धापूर्वक लाल चुनरी चढ़ाते है। माता को चने, पूरी, सूजी हलवा या लापशी का भोग बताया जाता है। इस दिन देवी गौरी (माता पार्वती) और महादेव (भगवान महेश) इन दोनों की एकसाथ पूजा का विधान है। देवी का ध्यान करने के लिए दोनों हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का उच्चारण करते है - "सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते..." ! सच्ची श्रद्धा से पूजन करने से आरोग्य, भौतिक सम्पदा, ऐश्वर्य, ज्ञान (विद्या), गुणवान जीवनसाथी, संतान, सौभाग्य, दीर्घायु, मनोकामनापूर्ति ये सभी के सभी प्राप्त होते है

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सभी को नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं !

नवरात्रि है माँ दुर्गा की भक्ति का पर्व...
'नवरात्रि' शक्ति (देवी) को समर्पित पर्व है। नवरात्री के नौ दिन देवी के नौ स्वरुपों की भी पूजा होती है जिन्हें नवदुर्गा कहते हैं। दुर्गा वास्तव में शिव की पत्नी पार्वती (शक्ति) का एक रूप हैं, जिसकी उत्पत्ति राक्षसों का नाश करने के लिये देवताओं की प्रार्थना पर पार्वती ने लिया था।

देवी पार्वती के ही पर्यायवाची नाम है - शक्ति, दुर्गा। वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा विभिन्न शास्त्रों में इसी शक्ति को देवी, महादेवी, शिवा (शिवानी), अम्बा, जगदम्बा, भवानी, चामुण्डा, शक्ति, आदिशक्ति, पराशक्ति, जगतजननी, सर्वकुलमाता, माँ, त्रिपुरसुंदरी, माया, महामाया, आदि-माया, भगवती, महेश्वरी तथा मूलप्रकृति आदि नामों से भी जाना गया है

शास्त्रों में वर्णन आता है की 'शिव' बिना उनकी शक्ती के, शव हैं और 'शक्ति' बिना शिव के शून्य है। शिव के बिना शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं और शक्ति के बिना शिव शव के समान है। शिव और शक्ति एक दूसरे के बिना अधूरे है। जहां शिव हैं वहां शक्ति का निवास है और जहां शक्ति है वहीं शिव भी विराजमान हैं। शिव और शक्ति, महेश और पार्वती एकदूजे में समाहित है। दोनों एक है जैसे अग्नि और अग्नि की दहिका शक्ति... अर्धनारीश्वर रूप इसी शिव-शक्ति स्वरुप का प्रतीक है

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नवरात्री में शक्ति की, दुर्गा की पूजा-आराधना तो की जाती है लेकिन शिव (महादेव / महेश) को पूजा-आराधना में स्थान नहीं देने से पूजा-आराधना अधूरी रह जाती है। नवरात्रि में शक्ति/दुर्गा पूजा में महादेव का पूजन भी अनिवार्य है। सच्ची श्रद्धा से महादेव-पार्वती या 'महेश परिवार' स्वरुप में नवरात्रि की आराधना करने से आरोग्य, भौतिक सम्पदा, ऐश्वर्य, गुणवान जीवनसाथी, संतान, सौभाग्य, दीर्घायु, मनोकामनापूर्ति, पूर्णत्व, इष्ट प्रत्यक्षिकरण ये सभी के सभी प्राप्त होते है

जय भवानी - जय महेश !

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Gramdevi Shree Khandeshwari Mata Mandir – Beed | बीड की ग्रामदेवता (गांवदेवी) श्री खण्डेश्वरी माता

Shree Khandeshwari Mata is the Gramdevata means the city deity of Beed, Maharashtra. During Navratri lots of devotees visit the temple from early morning till late night. Devotees visit the temple to seek blessings from Goddess Khandeshwari and offer prayers for success, prosperity, and the removal of obstacles. The serene and spiritual atmosphere of the temple makes it a popular destination for worshipers and spiritual seekers.

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बीड की ग्रामदेवता (गांवदेवी) श्री खण्डेश्वरी माता
जय माँ खण्डेश्वरी !
जय माता दी !!!

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Who are Maheshwaris? What is Maheshwaritva? | What is Maheshwarism? | Maheshwari | All About Maheshwarism (माहेश्वरीजम) - A Brief Introduction | Maheshwari Samaj Utpatti | Mahesh Navami

Maheshwaritva/Maheshwarism is a spiritual and cultural worldview rooted in the timeless wisdom of Lord Mahesha (Shiva) and upheld by the Maheshwari lineage.

According to the traditional belief of Maheshwari Samaj, which has been going on from generation to generation, In 3133 BC, a wonderful event occurred in which a new society was established by Lord Mahesha (Lord Shiva) and Adishakti Parvati (Goddess Maheshwari) And Lord Mahesha himself had given the newly established society the name "Maheshwari". From then this society became known as Maheshwari Community. In Maheshwari community, this event of establishment of Maheshwari Samaj is known as Maheshwari Samaj Utpatti / Vanshotpatti (After that, the children of Maheshwari parents are 'Maheshwari'). It was not just the establishment of a new society by Lord Mahesha but the establishment of a new culture. Therefore, Maheshwari Samaj considers the establishment of Maheshwari Samaj as the establishment of a new culture, believes to be the beginning/emergence of a new culture, known as Maheshwari culture. The spiritual, cultural, social principles, rules, traditions and ideologie of Maheshwari culture are called "Maheshwaritva". Maheshwari people who lives life, according to the principles, rules, traditions and ideology prescribed/showned by Lord Mahesha, Goddess Maheshwari (Goddess Parvati) and Adi Maheshacharya, that's called Maheshwaritva. In the Maheshwari community, the origin day (foundation day) of Maheshwari community is traditionally celebrated as name of Mahesh Navami as the biggest festival of the Maheshwari Samaj. Therefore, Mahesh Navami is not only the foundation day of Maheshwari Samaj but also the foundation day of Maheshwaritva. Maheshwaritva is called Maheshwarism in English. Both have the same meaning. Both are same, mean the same. One is in English and other is in Hindi. Maheshwarism (माहेश्वरीजम) and Maheshwaritva are words in two different languages, and in summary they both refer to the same thing.


माहेश्वरी समाज की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परंपरागत मान्यता के अनुसार, ईसवी सन पूर्व 3133 में एक अद्भुत घटना घटी थी जिसमें भगवान महेश (भगवान शिव) एवं आदिशक्ति पार्वती (देवी महेश्वरी) द्वारा एक नए समाज की स्थापना की गई थी और स्वयं भगवान महेश ने उस नवस्थापित समाज को "माहेश्वरी" नाम दिया था। तबसे यह समाज "माहेश्वरी समाज" के नाम से जाना जाता है। माहेश्वरी समाज में, माहेश्वरी समाज स्थापना की इस घटना को माहेश्वरी समाज उत्पत्ति (वंशोत्पत्ति) के नाम से जाना जाता है (तदोपरांत माहेश्वरी माता-पिता की संतान 'माहेश्वरी' होती हैं, माहेश्वरी कहलाती हैं)। भगवान महेश द्वारा यह केवल एक नए समाज की स्थापना नहीं थी बल्कि एक नए संस्कृति की स्थापना थी। इसीलिए, माहेश्वरी समाज के स्थापना को माहेश्वरी समाज एक नए संस्कृति की स्थापना मानता है, एक नई संस्कृति, जिसे माहेश्वरी संस्कृति के नाम से जाना जाता है की शुरुवात/उदय होना मानता है। माहेश्वरी संस्कृति के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक सिद्धांत, नियम, परंपरा और विचारधारा को ही "माहेश्वरीत्व" कहा जाता है। माहेश्वरी लोग जो भगवान महेश, देवी माहेश्वरी (देवी पार्वती) और आदि महेशाचार्य द्वारा निर्धारित/दिखाए गए सिद्धांतों, नियमों, परंपराओं और विचारधारा के अनुसार जीवन जीते हैं, उसे माहेश्वरीत्व कहा जाता है।
माहेश्वरी समाज में, माहेश्वरी समाज के उत्पत्ति दिवस (माहेश्वरी समाज स्थापना दिवस) को परंपरागत रूप से समाज के सबसे बड़े त्योंहार के रूप में महेश नवमी के नाम से मनाया जाता है। इसलिए महेश नवमी का दिन ना सिर्फ माहेश्वरी समाज का स्थापना दिवस है बल्कि माहेश्वरीत्व का भी स्थापना दिवस है। माहेश्वरीत्व को इंग्लिश भाषा में माहेश्वरीजम कहते है। दोनों का अर्थ एक ही है। दोनों एक ही हैं, दोनों का मतलब एक ही है। एक हिंदी में है और दूसरा अंग्रेजी में है। माहेश्वरीत्व और माहेश्वरीजम (Maheshwarism) दो अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं और संक्षेप में वे दोनों एक ही बात को संदर्भित करते हैं।


Jay Mahesh