नवरात्र में कन्या पूजन का महत्व एवं विधि
नवरात्र पूजन से जुड़ी कई परंपराएं हैं। जैसे कन्या पूजन। इसका धार्मिक कारण यह है कि कुंवारी कन्याएं देवीमाता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती हैं। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती हैं। यही कारण है कि इसी उम्र की कन्याओं का विधिवत पूजन कर भोजन कराया जाता है। मान्यता है कि होम, जप और दान से देवी इतनी प्रसन्न नहीं होतीं, जितनी कन्या पूजन से होती है। ऐसा कहा जाता है कि विधिवत, सम्मानपूर्वक कन्या पूजन से व्यक्ति के हृदय से भय दूर हो जाता है। साथ ही उसके मार्ग में आने वाली सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं। उस पर मां की कृपा से कोई संकट नहीं आता। मां दुर्गा उस पर अपनी कृपा बरसाती हैं। आरोग्य, भौतिक सम्पदा, ऐश्वर्य, ज्ञान (विद्या), गुणवान जीवनसाथी, संतान, सौभाग्य, दीर्घायु, मनोकामनापूर्ति ये सभी के सभी प्राप्त होते है।
नवरात्रि में नौ कन्या का महत्व-
जिस प्रकार किसी भी देवता के मूर्ति की पूजा करके हम सम्बंधित देवता की कृपा प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार मनुष्य प्रकृति रूपी कन्याओं का पूजन करके साक्षात माँ आदिशक्ति भगवती की कृपा पा सकते हैं। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है कि "कुमारीं पूजयित्या तू ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्" अर्थात दुर्गापूजन से पहले कुवांरी कन्या का पूजन करने के पश्चात ही आदिशक्ति मां दुर्गा का पूजन करें।
नवरात्रि/विजयादशमी के दिन माँ आदिशक्ति दुर्गा की पूजा करने से पहले कन्या-पूजन करने को महत्व दिया जाना इस बात के मर्म को समझने की आवश्यकता है, इसमें छिपे सन्देश को समझने की आवश्यकता है की "नारी अबला नहीं बल्कि शक्ति का स्वरुप है"। यही है नवरात्रि का सन्देश। केवल माँ दुर्गा की पूजा करने से नहीं अपितु कन्याओं का, महिलाओं का आदर-सम्मान करने से ही माँ आदिशक्ति की कृपा प्राप्त होती है। यही वास्तविक दुर्गा पूजा है, इसके बिना साक्षात माँ दुर्गा की पूजा भी अधूरी है, अपूर्ण है।
नवरात्र में कन्या पूजन के लिए जिन कन्याओं का चयन करें, उनकी आयु दो वर्ष से कम न हो और दस वर्ष से ज्यादा भी न हो। एक वर्ष या उससे छोटी कन्याओं की पूजा नहीं करनी चाहिए। एक वर्ष से छोटी कन्याओं का पूजन, इसलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह प्रसाद नहीं खा सकतीं और उन्हें प्रसाद आदि के स्वाद का ज्ञान नहीं होता। इसलिए शास्त्रों में दो से दस वर्ष की आयु की कन्याओं का पूजन करना ही श्रेष्ठ माना गया है।
आयु अनुसार कन्या रूप -
नवरात्र में सभी तिथियों को एक-एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा होती है।
- दो वर्ष की कन्या (कुमारी) के पूजन से माँ दुख और दरिद्रता दूर करती हैं।
- तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति रूप में मानी जाती है। त्रिमूर्ति कन्या के पूजन से धन-धान्य आता है और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
- चार वर्ष की कन्या को कल्याणी माना जाता है। इसकी पूजा से परिवार का कल्याण होता है।
- पांच वर्ष की कन्या रोहिणी कहलाती है। रोहिणी को पूजने से व्यक्ति रोगमुक्त हो जाता है।
- छह वर्ष की कन्या को कालिका रूप कहा गया है। कालिका रूप से विद्या, विजय, राजयोग की प्राप्ति होती है।
- सात वर्ष की कन्या का रूप चंडिका का है। चंडिका रूप का पूजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
- आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी कहलाती है। इसका पूजन करने से वाद-विवाद में विजय प्राप्त होती है।
- नौ वर्ष की कन्या दुर्गा कहलाती है। इसका पूजन करने से शत्रुओं का नाश होता है तथा असाध्य कार्यपूर्ण होते हैं।
- दस वर्ष की कन्या चामुण्डा कहलाती है। चामुण्डा अपने भक्तों के सारे मनोरथ पूर्ण करती है।
नवरात्र के दसों दिन कुवारी कन्या भोजन कराने का विधान है परंतु अष्टमी तथा नवमी के दिन का विशेष महत्व है। अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार अष्टमी या नवमी को, या दोनों ही दिन कन्या पूजन किया जाता है। अतः श्रद्धापूर्वक कन्या पूजन करना चाहिये। कन्याओं की संख्या 9 हो तो अति उत्तम है नहीं तो दो कन्याओं से भी काम चल सकता है। सर्वप्रथम माँ दुर्गा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पाँव धोएं। हल्दी, कुमकुम, अक्षदा, पुष्प चढ़ाये। इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर कुमकुम / बिंदी लगाएं। आरती उतारें। प्रसादी का भोग लगाएं। एक थाली में दो पूरी उसपर चने और सूजी हलवा / लापशी रखे हुए नौ (9) नैवेद्य रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं। कन्याओं को भोग बताएं (कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को परोसी जानेवाली थाली में से यही प्रसाद खाने को दें)। इस प्रसाद के साथ खीर, अरहर (तुवर) की दाल - चावल या खिचडी, पूरनपोली का विशेष महत्व है। अन्य मीठे व्यंजन भी बनाए जा सकते हैं। कन्याओं के भोजन के पश्चात कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें। कन्या पूजन में भेट-उपहार में देने हेतु कई वस्तुएँ प्रचलित हैं मगर पूजन में वही वस्तुएँ देनी चाहिए जिसे पाकर कन्या प्रसन्न हो। " जय माता दी " कहकर उनके चरण छुएं। कन्याओं को घर से विदा करते समय उनसे आशीर्वाद के रूप में पीठ पर थपकी लेने की भी मान्यता है। कन्याओं के साथ एक लांगूर यानी लड़के को भी भोजन कराते है (जिमाते है)। ऐसा कहा जाता है कि लांगूर के बिना कन्या-भोजन अधूरा रहता है। कन्याओं के प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास (पूजा में) रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।
नौ दिन प्रतिदिन देवीको नैवेद्य चढाना -
नवरात्रिमें देवीके नैवेद्यके लिए सदाकी भांति ही सात्विक पदार्थोंका भोजन बनाएं। नित्यके व्यंजनोंके अतिरिक्त विशेषतः चना और हलवा का समावेश जरूर करें। यद्यपि भक्त को उपवास हो तो भी देवी को प्रतिदिन नैवेद्य का भोग लगाना चाहिए। चना और अरहर की दाल इन दो व्यंजनोंकी सहायतासे, चढाए गए नैवेद्य के कारण, उससे प्रक्षेपित कार्यरत रजोगुणके वेगकी ओर ब्रह्मांडकी शक्तिरूपी तेज-तरंगें अल्पावधिमें आकृष्ट होती हैं। इसलिए उस नैवेद्यको प्रसादके रूपमें ग्रहण करनेवालेको उसमें विद्यमान शक्तिरूपी तेज-तरंगोंका लाभ मिलता है और उसकी स्थूल एवं सूक्ष्म देहोंकी शुद्धि होती है।’
नवरात्रिमें प्रत्येक दिन उपासक विविध व्यंजन बनाकर देवीमां को नैवेद्य अर्पित करते हैं। माहेश्वरी समाज में प्रसाद / नैवेद्य के रूपमें चने, खीर-पूरी, अरहर (तुवर) की दाल - चावल या खिचडी का एवं पूरनपोली और लापशी-चावल का विशेष महत्व है। चनेकी दाल पकाकर, रगडकर, गुड मिलाकर बनाया गया एक पदार्थ, इसे ‘पूरण’ कहते हैं। इस पूरण को भरकर ‘पुरणपोळी’ अर्थात पूरणकी मीठी रोटी विशेष रूपसे बनाई जाती है। चावलके साथ खानेके लिए अरहर अर्थात तुवरकी दाल भी बनाते हैं। बंगाल प्रांतमें प्रसाद के रूपमें चावल एवं मूंगदाल की खिचडीका विशेष महत्व है। रसगुल्ला आदि मीठे व्यंजन भी बनाए जाते हैं। महाराष्ट्र में पूरनपोली के नैवेद्य का विशेष महत्व है। गुजरात में चने और खिचड़ी के नैवेद्य का भोग लगाते है।
नवरात्र की अष्टमी - नवमी है विवाहितों के लिए विशेष -
नवरात्र पर्व में अष्टमी या नवमी के दिन (अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार) विवाहित महिलाएं और पुरुष अपने जीवनसाथी के स्वास्थ्य-यश-सुख-समृद्धि के लिए देवी मां को 'चुनरी' भेंट करते हैं। घर में स्थापित माता की मूर्ति या फोटो पर पति-पत्नी मिलकर श्रद्धापूर्वक लाल चुनरी चढ़ाते है। माता को चने, पूरी, सूजी हलवा या लापशी का भोग बताया जाता है। इस दिन देवी गौरी (माता पार्वती) और महादेव (भगवान महेश) इन दोनों की एकसाथ पूजा का विधान है। देवी का ध्यान करने के लिए दोनों हाथ जोड़कर श्रद्धापूर्वक इस मंत्र का उच्चारण करते है - "सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते..." ! सच्ची श्रद्धा से पूजन करने से आरोग्य, भौतिक सम्पदा, ऐश्वर्य, ज्ञान (विद्या), गुणवान जीवनसाथी, संतान, सौभाग्य, दीर्घायु, मनोकामनापूर्ति ये सभी के सभी प्राप्त होते है।