Guru is Guru and God is God. गुरु को भगवान और भगवान को पत्थर मानना इंसान की सबसे बड़ी भूल
Maheshacharya Premsukhanand Maheshwari: The first full moon after the summer solstice in the month of Ashadha (July-August), is known as Guru Purnima. This sacred day marks the first transmission of the yogic sciences from Lord Mahesha (Lord Shiva) – the Adiyogi or first yogi – to his first disciples, the Saptarishis, the seven celebrated sages. Thus, the Adiyogi Lord Mahesha became the Adi Guru or first Guru on this day. The Saptarishis carried this knowing throughout the world. Guru Purnima also marks the birth anniversary of Ved Vyas (Maharishi Vedvyas ji is the son of Adi Maheshacharya Maharishi Parashar. Maheshacharya, This is the highest Guru post of Maheshwari community). Maharishi Vedvyas has compiled the important epic Mahabharata, Shrimad Bhagavad Gita, 18 Puranas as well as the Vedas.
आषाढ़ माह (जुलाई-अगस्त) में ग्रीष्म संक्रांति के बाद पहली पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है. यह पवित्र दिन भगवान महेश (भगवान शिव) - आदियोगी या पहले योगी - से उनके पहले शिष्यों, सप्तऋषियों, सात प्रसिद्ध ऋषियों तक योग विज्ञान के पहले प्रसारण का प्रतीक है. इस प्रकार, इस दिन आदियोगी भगवान महेश आदि गुरु या पहले गुरु बने. सप्तऋषियों ने इस ज्ञान को दुनिया भर में पहुंचाया. गुरु पूर्णिमा वेद व्यास की जयंती का भी प्रतीक है (महर्षि वेदव्यास जी आदि महेशाचार्य महर्षि पराशर के ही पुत्र है. महेशाचार्य यह माहेश्वरी समाज का सर्वोच्च गुरु पद है।). महर्षि वेदव्यास ने महत्वपूर्ण महाकाव्य महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, 18 पुराण के साथ ही वेदों का भी संकलन किया है.
'परिवार, समाज, गुरु और धर्म'
यह भारतवर्ष की समाजव्यवस्था का मूल आधार है, यही भारतवर्ष की शक्ति है. भारतवर्ष की सनातन परंपरा के अनुसार आराध्य (ईश्वर या भगवान) की भक्ति की जाती है जिससे की उनकी कृपा भक्त पर अनवरत, सदैव बरसती रहे. गुरुओं और धर्माचार्यों के प्रति श्रद्धा रखी जाती है की उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे. गुरु सही रास्ता दिखाता है, देखने की शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है. गुरु चलना सिखाता है; सिखाने, सीखने और चलने की शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है. 'ईश्वर' स्वयंभू शक्ति (ऊर्जा) का अविनाशी-कभी ख़त्म ना होनेवाला भंडार है. साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु इनका कार्य (दायित्व) है की शिष्यों और समाज को मार्गदर्शन करें की वे ईश्वर (भगवान) द्वारा स्थापित, दर्शित, परिभाषित 'नैतिक और मानवीय मूल्यों' को आधार और आदर्श मानकर उसपर चले जिससे की सभी का जीवन सुखमय बने, सभी वास्तविक रूप से सुखी हो.
किसी पर भी अपनी श्रद्धा-भक्ति रखने से पहले इसकी जानकारी होना जरुरी है की श्रद्धा और भक्ति में क्या अंतर है? गुरु और भगवान में क्या अंतर है? शास्त्र कहते है की गुरु पर 'श्रद्धा' होती है और भगवान की 'भक्ति' की जाती है. श्रद्धा और भक्ति में बड़ा मामूली अंतर है. कभी-कभी तो यह लगता है कि दोनों आपस में दूध-पानी की तरह इस प्रकार घुल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचानना कठिन है. श्रद्धा और भक्ति में अति सूक्ष्म अंतर होते हुए भी अर्थ और भाव की दृष्टि से काफी असमानता है. श्रद्धा अनुशासन में बंधी है तो भक्ति न्योछावर करती रहती है अपने आप को, अर्पण करती है अपने सर्वस्व को. श्रद्धा में आदर का भाव रहता है, आदर की सरिता बहती है, तो भक्ति में प्रेम का समुद्र लहराता रहता है. बाहर से देखने में भक्ति भी श्रद्धा का ही एक रूप दिखाई देती है लेकिन भक्ति का पलड़ा केवल इसलिए भारी है कि इसके साथ प्रेम भी जुड़ा है. श्रद्धा श्रेष्ठ के प्रति होती है जैसे की, गुरु या धर्माचार्य के प्रति. भक्ति 'आराध्य' के प्रति होती है जैसे की वंशदेवता, कुलदेवी, भगवान (ईश्वर). आराध्य के प्रति किसी की भक्ति भी रहती है और श्रद्धा भी, लेकिन गुरु के प्रति व्यक्ति की मात्र श्रद्धा ही रहती है, मात्र श्रद्धा ही रहनी चाहिए.
समस्या तब निर्मित होती है जब व्यक्ति 'गुरु और आराध्य', 'श्रद्धा और भक्ति' के मध्य के अंतर को समझता नहीं है अथवा जानता नहीं है. यहां पर एक बात को भी समझना आवश्यक है कि अंधश्रद्धा या अंध भक्ति दोनों ही व्यक्ति के लिए घातक हैं. चाहे श्रद्धा हो या भक्ति, रखने से पहले समीक्षा और मीमांसा अवश्य होनी चाहिए. यानी देख-सुनकर ही केवल किसी पर अपनी श्रद्धा-भक्ति स्थिर नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसकी शास्त्र सम्मत मीमांसा करके, सोच-समझकर ही अपने भाव प्रकट करने चाहिए. इसे ना समझते हुए साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु के शिष्य बनने के बजाय भक्त बन जाना, धर्माचार्य/गुरु को भगवान और भगवान को पत्थर मानना यह इंसान की सबसे बड़ी नासमझी है, सबसे बड़ी भूल है.
हाल ही के दिनों में बाबा गुरमीत राम रहीम को बलात्कार के आरोप में सजा सुनाये जाने और उसके बाद की घटनाओं को लेकर जनसामान्यों में, मिडिया पर, सोशल मिडिया पर खूब चर्चा हो रही है. अनैतिक, अशोभनीय, अपराधिक, गैरकानूनी काम करनेवाला कोई भी हो, उसे देश के कानून द्वारा निर्धारित सजा होनी ही चाहिए, बल्कि जिन पर नैतिक और मानवीय मूल्यों पर चलने का मार्गदर्शन करने का दायित्व है उन साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरुओं द्वारा अनैतिक आचरण अथवा कार्य होता है तो उन्हें ऐसा कार्य करनेवाले आम लोगों से दुगनी सजा होनी चाहिए. लेकिन मिडिया पर, सोशल मिडिया पर जो चर्चाएं हो रही है ज्यादातर उनमें ऐसा कहा-सुनाया जा रहा है की सारे के सारे साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु 'आसाराम और राम रहीम' जैसे ही है और इन्हे होना ही नहीं चाहिए, समाज को नैतिक और मानवीय मूल्यों पर चलने का मार्गदर्शन करनेवाली यह जो 'व्यवस्था' है उसे समाप्त कर देना चाहिए. यह तो ऐसे ही है की चुने हुए 'कुछ' लोकप्रतिनिधि गलत काम करनेवाले और अपराधी साबित हो जाये तो पूरी के पूरी लोकतान्त्रिक व्यवस्था (डेमोक्रेसी) को ही समाप्त कर दिया जाये या 'कुछ' डॉक्टर गलत काम करनेवाले और अपराधी साबित हो जाये तो पूरी के पूरी डॉक्टरी व्यवस्था को, हॉस्पिटल की व्यवस्था (सिस्टम) को ही समाप्त कर दिया जाये. गुरमीत राम रहीम और आसाराम जैसे लोगों की आड़ लेकर भारतवर्ष की सनातन धार्मिक-आध्यात्मिक विरासत जो की भारतवर्ष की समाजव्यवस्था का मूल आधार है को समाप्त करने का यह जो खेल खेला जा रहा है इसके खतरे को, उसके अच्छे-बुरे, सही-गलत पहलू को भी जनसामान्यों को समझना होगा. लोगों को अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए इस बात को समझना होगा की हरएक क्षेत्र में फिर वह चाहे राजनीती हो, मिडिया हो, डॉक्टर और हॉस्पिटल्स हो, शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापक (teachers) हो या आध्यात्मिक जगत में कार्य करनेवाले साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु हो; हर क्षेत्र में गलत-अनैतिक-अपराधिक कार्य करनेवाले 'कुछ' लोग होते ही है लेकिन इन 'कुछ' गलत लोगों के कारन उस पूरी की पूरी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना अथवा उस पूरी व्यवस्था को ही समाप्त कर देना चाहिए ऐसा सोचना भी, ना तो समझदारी है और ना ही हितकारी. कुछ अपराधिक-गलत लोगों के कारन उस क्षेत्र में कार्य करनेवाले सारे के सारे (सभी) लोगों को गलत और अपराधी समझना भी सही नहीं है (चर्चा करते हुए भी इस बात को ध्यान में रखना आवश्यक है की आप-हम 'सभी के सभी' लोगों के बारे में नहीं बल्कि अपराधिक और गलत काम करनेवाले 'कुछ' लोगों की बात कर रहे है, उन 'कुछ' लोगों का ही धिक्कार और निंदा कर रहे है, 'सब'' की नही).
'परिवार, समाज, गुरु और धर्म' यह भारतवर्ष की समाजव्यवस्था का मूल आधार है, यही भारतवर्ष की शक्ति है. इस आधार को, इस शक्ति को यदि समाप्त कर दिया जायेगा तो भारतवर्ष में अधर्म की, अराजक की स्थिति बन जाएगी. 'गलत को हटाओ और सही को बढ़ाओ' इसी सही निति को अपनाकर भारतवर्ष की मूल शक्ति को कायम रखा जाना चाहिए, कायम रखना होगा.
अनैतिक-अपराधिक कार्य करनेवाले साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरुओं के खिलाफ कोई कड़ा निर्णय लेने का कार्य भी सनातन (हिन्दू) धर्म के अखाड़ों और शंकराचार्यों को करना चाहिए. जहाँ तक मेरी जानकारी है, आसाराम, रामपाल, गुरमीत राम रहीम जैसे खुद को संत या गुरु कहलाने बाले लोग अखाड़ों और शंकराचार्यों द्वारा 'साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु' के रूप में अधिकृत ही नही है (अखाड़े द्वारा प्रमाणित और अधिकृत होने के लिए एक प्रक्रिया होती है जिसमे चारित्र्य, आचरण, साधना, ज्ञान आदि के कसौटी पर परखने के बाद ही साधक को संत, महंत, मंडलेश्वर आदि अलग-अलग श्रेणियों में रखते हुए प्रमाणित या अधिकृत किया जाता है). अखाड़ों और शंकराचार्यों को चाहिए की, जो साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु सनातन धर्म के सर्वोच्च प्रबंधन संस्था अखाड़ों द्वारा मान्यताप्राप्त नही है, सनातन धर्म की जड़ों से (अखाड़ों से) जुड़े हुए नहीं है उनकी यह बात (जानकारी) समय-समयपर सार्वजनिक करनी चाहिए. जनसामान्यों को भी अपने विवेक को इतना तो जागृत रखना ही चाहिए की किसी साधु-संत-सन्यासी-धर्माचार्य-गुरु के अच्छा वक्ता होने या बड़े ताम-झाम होने से किसी के प्रभाव में जाने के बजाय उसके आचरण, चारित्र्य, साधना और ज्ञान के कसौटी पर तथा वह संत-गुरु-धर्माचार्य 'सनातन धर्म' की मूल परंपरा से जुड़ा हुवा है या नहीं इसे समझकर सही और गलत (लोगों) में फर्क कर सकें, सही क्या है और गलत क्या है इसे समझ सकें.
- महेशाचार्य प्रेमसुखानन्द माहेश्वरी (पीठाधिपति, माहेश्वरी अखाड़ा)
See link > माहेश्वरी समाज की समाजगुरु परंपरा
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